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गाँव का मन
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आज गाँव का मन जब इस तरह अकुला उठा है, तब गाँव केवल चौहद्दी रह गया है। हूक इस बात की होती है कि तकनीकी विकास का यह महाव्याल ज़हरीली उसाँस छोड़ रहा है। पत्तियों की हरियाली, फूलों का रंग, आदमी की साँस सब निगलता जा रहा है। फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए आदमी इस महाव्याल की आराधना कर रहा है। गाँव से उखड़कर दो कौर अन्न के लिए खुले आकाश की छत छोड़कर महाव्याल के मुँह में जाने को तैयार झुग्गी की साया लेने को लाचार है। वह आदमी झुग्गियों का मालिकाना हक पा चुका है। खुद बिलबिलाने वाला कीड़ा बन गया है। इस दारुण विडम्बना की बात केवल ज़ायका बदलने का एक मसाला है।...गाँव का मन शहर में बहुत सहमा-सहमा रहता है। - इसी पुस्तक से
About the writer
ED. VIDHYANIWAS MISHRA

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