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संचारिणी
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'संचारिणी' का नाम वस्तुतः विचारणी रखना चाहिए था, इस संग्रह में विचार-प्रधान निबन्धों या वार्ताओं का संकलन किया गया है। परन्तु कालिदास की पंक्ति ‘संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ' की स्मृति यकायक कौंधी और नाम ‘संचारिणी' रख दिया। एक दूसरा कारण भी था। मैं विचारक नहीं हूँ, विचारकों के बीच संचरण करने का सुअवसर मुझे अवश्य मिला है। मैंने विचारों के साथ संचरण थोड़ा बहुत किया है और उन सुधीजनों के सुचिन्तित मन्तव्यों को अपने हाथ रखे प्रज्वलित दीप की तरह थामा है। इन मन्तव्यों की संचारिणी दीपशिखा ही मैंने उकसायी है, न मेरा दिया है, न मेरा तेल, न मेरी बाती। हाँ, वह अन्धकार ज़रूर मेरा है, जिसे यह दीपशिखा जलाना चाहती है। इस संकलन के निबन्ध किसी गम्भीर चिन्तन के परिणाम नहीं हैं, न ये परिश्रमपूर्वक किये गये अनुसन्धान के फल हैं। ये निबन्ध महज़ विचार हैं, विचार भी कहना ठीक नहीं होगा, ये बस कहीं भीतर के संस्कार के ही भाषाई प्रस्तार हैं। इन्हें आलोचनात्मक निबन्ध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गुण-दोष के विवेचन का प्रपंच मुझे मालूम ही नहीं। एक विरही स्वभाव से लाचार हूँ, मुझे अपने परिवेश के लिए पर्युत्सुकता अकारण परेशान करती रहती है। अपने मन से लिखना होता तो मैं एक अक्षर नहीं लिख पाता। बस, कोई छेड़ देता है तो लिखने के लिए विवश हो जाता हूँ। - भूमिका से
About the writer
ED : DR. VIDYANIWAS MISHRA

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