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राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति
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'राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति' के केन्द्र में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का चिन्तन है। पूरी किताब में एक बिल्कुल नया और नफीस ख़याल चलता रहता है कि भारतीय ज़मीन पर औपनिवेशिक प्रभाव के खिलाफ संघर्ष करने के सीधे और सरल लगने वाले तौर-तरीके भीतर से कितने पेचीदा थे। यह रचना रवीन्द्रनाथ के जरिये बताती है कि भारतीय समाज में परम्पराप्रदत्त जड़ता और औपनिवेशिक जकड़बन्दी से संघर्ष करना ज़्यादा आसान था, लेकिन इस संघर्ष के दौरान खुफ़िया तौर पर चल रही उस प्रक्रिया का मुकाबला करना कठिन था जिसके तहत हम उपनिवेशवादी मूल्यों को ही आत्मसात करते जा रहे थे। उपनिवेशवाद का एक 'डबल' या प्रतिरूप हमारे भीतर बनता जा रहा था। इस परिघटना में आधुनिकता, राष्ट्रवाद और राज्यवाद का निर्णायक योगदान था। अकसर शिनाख्त से बच निकलने वाली इस प्रक्रिया को जिन कुछ लोगों ने पहचान लिया था, उनमें रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रमुख थे। उन्होंने न केवल इस प्रक्रिया को पहचाना, बल्कि उपनिवेशवादी संघर्ष के प्रचलित मुहावरे के बावजूद इसकी समग्र आलोचना विकसित की। लेकिन, यह आलोचना बहुत दिनों तक नहीं टिक सकी और हमारे भीतर का वह औपनिवेशिक 'डबल' यानी राष्ट्रवाद उस वास्तविक भारतीय इयत्ता यानी देशभक्ति के रूपों पर हावी होता चला गया।
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ASHISH NANDI

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