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प्रस्तुत पुस्तक दो लेखमालाओं का संकलन है। इन लेखों में प्रसिद्ध चिन्तक सच्दिानन्द सिन्हा ने संस्कृति की सृजनात्मक भूमिका को रेखांकित किया है। मनुष्य दूसरे जीवों से अलग इस बात में है कि वह पूरी तरह अपने ‘जीन’ यानी आनुवंशिकी द्वारा निर्धारित क्रियाकलापों पर निर्भर नहीं करता है। वह अपने जीवन के लिए प्रकृति द्वारा दिये गये परिवेश को ज्यों का त्यों स्वीकार कर अपने जीवन को उसी के अनुसार नहीं ढालता बल्कि परिवेश में भी अपनी आवश्यकताओं के हिसाब में परिवर्तन करता चलता है। इस तरह वह प्रकृति प्रदत्त सृष्टि के समानान्तर नयी सृष्टियों का जनक भी है।
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SACHCHIDANAND SINHA

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