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शिकस्तो-रेख़्त की मनाजिल से गगुज़रकर जो ग़जल नमूदार हुई वो ज़िन्दगी से बहुत करीब थी। ग़ज़ल के इस बदले हुए मिजाज़ को जिन शायरों ने समझा और बरता उनमें मुनव्वर राना को इम्तियाजी हैसियत हासिल है। उनकी शायरी न सिर्फ जिन्दगी के तमाम दीगर मुआमलात व मसाइल का एहाता करती है बल्कि वो इंसानी रिश्तों की हकीकत , लताफत व नजाकत और पकिजगीयों का इदराक भी रखती है। उसमें जज़्बों की आँच, मुहब्बत का वज़्दान और रिवायत व अकदार की पासदारी की जुस्तुजू है। मुनव्वर राना का पैकर हकीकत उनकी शायरी का आईनादार है जिसने इस वहम को बहुत हद तक दूर कर दिया है कि उर्दू शायरी सिर्फ हुस्न और इश्क गिर्द चक्कर लगाती रहती है और ‘साहिर’ के इस मिसरे की तस्दीक करती है ‘और भी ग़म है ज़माने में मुहब्बत के सिवा’।
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MUNAWWAR RANA

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