Details
महिलाओं के अधिकार पर संघर्षशील लेखिका, कवयित्री अनामिका ने स्त्री-विमर्श पर हिन्दी भाषा में पहली शोधपूर्ण पुस्तक 'स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष' प्रस्तुत की है । पुस्तक हर वर्ग, नस्ल, आयु या जाति की स्त्री के सामाजिक, व्यक्तिगत व राजनीतिक त्रिकोण पर प्रकाश डालती है । पुस्तक स्त्री-विमर्श पर वर्तमान काल में उपलब्ध साहित्य से इसलिए अलग है क्योंकि न तो यह पूर्ण रूप से पाश्चात्य परम्परा के बौद्धिक विमर्शों पर केन्द्रित है और न ही समाज में स्त्री की दुर्दशा का ब्योरा भर देती है । बल्कि यह इन दोनों तरह के स्त्री-वैमर्शिक साहित्य को जोड़ती है, यानी इसमें स्त्री-विमर्श की वर्तमान परिस्थितियों पर बोद्धिक रूप से तर्कपूर्ण चर्चा है ।
Additional Information
लेखिका कहती है कि स्त्री-विमर्श पर अलगाववाद का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता । स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहाँ कहीं दमन है- चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल, जिस आयु, जिस जाति की स्त्री त्रस्त है उस पर प्रकाश डालने की कोशिश की है । लेखिका कहती है कि मूँछ की लड़ाई में औरत की हत्या और प्रेमी की भी । जैसे कि उनका कोई वजूद ही नहीं, कोई मर्जी नहीं । कोई उसके साथ जबर्दस्ती कर रहा हो या उसे क्षणिक वासना-शांति का माध्यम बना रहा हो और अन्त में हत्या । जब कोई जीवन भर साथ निभाने को तैयार है तो सिर्फ इस खातिर उसका वध कर देना क्या उचित है कि उसने जात-पाँत, गोत्र का बंधन नहीं माना, यह तो हद है । लेखिका कहना चाहती है कि 'चिड़िया जाल में क्यों फँसी' क्योकि वह चिड़िया थी । इसका पैना उत्तर यह है कि 'चिड़िया जाल में फँसी क्योंकि वह चिड़िया थी, लेखिका महात्मा फुले की बात को कहती है कि सर्वप्रथम महात्मा फुले ने स्त्रियों और दलितों की आपसदारी की बात की थी । नाइयों को एकजुट किया था कि विधवाओं के केश-कर्तन से साफ मना करें । पति का गुजर जाना कोई अपराध नहीं, संयोग है। सिर्फ इसलिए जबरदस्ती क्यों सिर मुंडा दिया जाये कि पति जीवित नहीं रहे ? सिर मुंड़ाने के लिए सिर नवाना-बेसिर पैर की परम्पराओं के आगे सिर नावाने जैसा है । लेखिका ने स्पष्ट किया है कि अस्मिता की लड़ाई मुख्यत: स्वाभिमान की लड़ाई है । स्वाभिमान की लड़ाई पेट भरने की लड़ाई से अलग है और कोई लक्जरी नहीं है । स्वाभिमान की व्याख्या असल में उन स्त्रियों और दलितों से पूछिए जो मान में कई-कई दिन भूखे रह जाते हैं और थककर, बिन मनाये काम पर लौटते भी हैं । पुस्तक में लेखिका इराक युद्ध का वर्णन करती है कि दस महीने का इराकी बच्चा मुँह उठा कर रो रहा था । उसकी आठ वर्ष की बहन जो खुद भी बम से उतनी ही आहत है, अपना रोना भूल कर उसे चुप करा रही है । अमूमन यही करती हैं स्त्रियाँ । किसी की परेशानी में अपना रोना भूल जाती हैं और उठ खड़ी होती हैं, मृत्यु की विभीषिका के खिलाफ।
About the writer
ANAMIKA

Customer Reviews
- No review available. Add your review. You can be the first.