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‘प्रेमाश्रम', जिसका प्रकाशन 1922 ई. में हुआ था, मुंशी प्रेमचन्द का सर्वप्रथम उपन्यास है, इसमें उन्होंने नागरिक जीवन और ग्रामीण जीवन का सम्पर्क स्थापित किया है और राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण करते हैं। परिवारों की कथा का मोह तो वे इस उपन्यास में भी नहीं छोड़ सके, क्योंकि प्रभाशंकर रायकमलानन्द गायत्री और डिप्टी ज्वालासिंह के परिवारों की कथा से ही उपन्यास का ताना-बाना बना गया है, तो भी वे जीवन के व्यापक क्षेत्र में आते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम झाँकी और भागनागत राम-राज्य की स्थापना का स्वप्न 'प्रेमाश्रम' की अपनी विशेषता है। उसका उद्देश्य है- साम्य सिद्धांत। प्रेमशंकर द्वारा हाजीपुर में स्थापित प्रेमाश्रम में जीवन-मरण के गृढ़ जटिल प्रश्नों की मीमांसा होती थी। सभी लोग पक्षपात और अहंकार से मुक्त थे। आश्रम सारल्य, संतोष और सृविचार की तपोभूमि बन गया था वहाँ न धन की पूजा होती थी और न दीनता पैरों तले कुचली जाती थी। आश्रम में सब एक दूसरे के मित्र और हितैषी थे। मानव-कल्याण उनका चरम लक्ष्य था। उसका व्यावहारिक रूप हमें उपन्यास के 'उपसंहार' शीर्षक अंश में मिलता है। लखनपुर गाँव में स्वार्थ-सेवा और माया का प्रभाव नहीं रह गया। वहाँ अब मनुष्य की मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा हुई है-ऐस मनुष्य की जिसके जीवन में सुख, शांति, आनन्द और आत्मोल्लास है।
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N. BALAMANI AMMA

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