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अज्ञेय: वामर्थ का वैभव
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अज्ञेय हिन्दी कविता में आधुनिक भाव-बोध के अग्रदूत माने जाते रहे हैं और उनके कवि-कर्म तथा चिन्तन दोनों में एक गहरा दायित्व-बोध, स्वातन्त्र्य-चेतना और उससे अनिवार्यतः जुड़ी हुई सांस्कृतिक अस्मिता की शोध का अध्यवसाय भी उत्तरोत्तर विकसित होता गया है। दोनों ही भूमिकाओं में अज्ञेय की चिन्ता का केन्द्र हिन्दी का साधारण पाठक ही रहा और उसमें भी जोर उस पाठक की अपनी स्वाधीन आत्म-चेतना को जगाने पर, जो कि भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के साथ एक रचनात्मक, गतिशील सम्बन्ध स्थापित करती है। साक्षात जिये जा रहे जीवन और आधुनिक विचार-प्रवाहों के बीचोबीच मज़बूती से पाँव टिकाकर अपने देश और समाज की नियति को पहचानना तथा उसके निर्माण में सचेत योगदान करना ही उसकी मूल प्रेरणा है। हीरानन्द शास्त्री स्मारक व्याख्यान माला के निमित्त से प्रस्तुत इस ग्रन्थ में हिन्दी के जाने-माने कवि-कथाकार-आलोचक और अज्ञेय-साहित्य के मर्मज्ञ रमेश चन्द्र शाह ने अज्ञेय के कवि-कर्म और वैचारिक कृतित्व को न केवल स्वायत्त उपलब्धियों की तरह, बल्कि एक विलक्षण अन्तःसंगति में जुड़ी परस्परपूरक प्रक्रियाओं की तरह भी देखा और दिखलाया है। यदि महान आयरिश कवि यीट्स को 'भारतीय संस्कृति की बुझती हुई जोत' के दर्द के साथ-साथ इस बात का भी गुस्सा था कि... “सत्य की सर्वप्रथम खोज करने वाला भारत क्यों आज अपनी ही खोज की पहचान तक के लिए यूरोप का मुँह ताकने को लाचार है" तो उनके समानधर्मा अज्ञेय को भी अपने देशवासियों की दुरवस्था ने यह सन्तोष व्यक्त करने को विवश किया था कि. ... “भारतीय संस्कृति ने अपनी सर्जनशीलता मानो खो दी है; अपने जीने का कारण ढूँढ़ने के लिए वह मानो पराया मुँह जोह रही है।" एक ओर यदि टी.एस. एलियट का 'दि वेस्टलैंड' है और उसमें झलकती सिकुड़ी-सिमटी 'गंगा', तो दूसरी ओर अज्ञेय की 'मरुथल-शृंखला' है, जिसमें... "देवता अब भी जलहरी को घेरे बैठे हैं; पर जलहरी में पानी सूख गया है।" इस यथार्थ के बेहिचक स्वीकार और आकलन के बावजूद इस अत्यन्त रोचक और विचारोत्तेजक ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए लेखक का निष्कर्ष यह है कि जो कवि इस तरह अपनी कविता में देवताओं के सूखते जाने को, 'नन्दा' के नीचे बिछ रहे मरुस्थल को पहचान सकता है, उसका कवि-कर्म और उस कवि-कर्म के पीछे कार्यरत अन्तःप्रक्रियाओं का भरा-भूरा गद्य-साक्ष्य भी हमें आश्वस्त करता है कि वह न केवल इस त्रास के यथातथ्य साक्षात्कार में समर्थ है, प्रत्युत इस 'त्रासजनित विवेक' को भी 'पावनताजनित बोध' में रूपान्तरित कर सकने वाले सांस्कृतिक ऊर्जा-स्रोतों तक भी उसकी पहुँच निस्सन्देह है। वैसी ही पहुँच हिन्दी के समकालीन लेखकों और पाठकों की भी अद्यावधि-अक्षुण्ण बनी रहे, यही इस पुस्तक के प्रस्तुतीकरण का प्रयोजन है और औचित्य भी।
About the writer
ED. RAMESH CHANDRA SHAH

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