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पुनरूपाठ दिव्या
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“....आज की पुनर्पाठीय चेष्टाओं व पहले के प्रयासों में केवल समानता ही नहीं बल्कि बड़ी भिन्नताएँ भी हैं। पहले की पुनर्व्याख्याएँ वास्तविक व प्रामाणिक सत्य की तलाश करती थीं। उनका आग्रह मूल व प्रामाणिक की खोज पर रहता था। पर वर्तमान पुनपाठ ने मूल व प्रामाणिक की अवधारणा को ही चुनौती दे दी है। किसी केंद्रीय सत्य व मूल अर्थ की धारणा को अस्वीकार करने की प्रवृत्तियों का विकास हुआ है तथा व्याख्या के स्तर पर प्रामाणिक-अप्रामाणिक का भेद खत्म करने के किंचित बड़बोले पर आकर्षक दावे किए गए हैं। इसलिए पुनपाठ की वर्तमान पद्धति केवल पुरानी परंपरा के विकास को नहीं बल्कि वर्तमान परिवेश में ढेरों परिवर्तनों को भी सूचित करती है...”
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YASHPAL

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