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लखनऊ मेरा लखनऊ
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ख़ैर तो साहब, जोशी जी लेखक-वेखक बन गये। गोष्ठियों में जाने लगे। कॉफी हाउस में कॉफी पिलानेवालों की संगत करने लगे। लेखक बनने के लिए तब का लखनऊ एक आदर्श नगर था। यशपाल, भगवती बाबू और नागर जी ये तीन-तीन उपन्यासकार वहाँ रहा करते थे। तीनों से जोशी जी का अच्छा परिचय हो सका। शुरू में यशपाल उनके पड़ोसी रहे थे और इन तीनों में यशपाल ही प्रगतिशीलों के सबसे निकट थे। इसके बावजूद यशपाल से ही जोशीजी सबसे कम परिचय हो पाया। यशपाल उन्हें थोड़े औपचारिक-से, शुष्क-से और साहिबनुमा-से लगे। इसकी एक वजह शायद यशपाल जी की रोबीली और कुछ घिसी-घिसी-सी आवाज रही हो। यशपाल जी ने भी उन्हें कभी खास 'लिफ्ट' नहीं दी। यशपाल जी से कहीं ज़्यादा निकटता जोशी जी ने उनकी पत्नी और उनकी बेटी मंटा से अनुभव की। अल्हड़ मण्टा लखनऊ लेखक संघ के सभी सदस्यों को बहुत प्यारी लगती थी, रघुवीर सहाय ने तो उस पर कभी कुछ लिखा भी था। भगवती बाबू से जोशी जी की बहुत अच्छी छनी। बावजूद इसके कि तब भगवती बाबू कांग्रेसी थे और उस दौर के कम्युनिस्टों के लिए कांग्रेस 'समाजवादी' नहीं, किसानों-मजदूरों का दमन करनेवाली पार्टी थी। भगवती बाबू से जोशी जी की अच्छी छनने का सबसे बड़ा कारण यह था कि वह नयी पीढ़ी के लेखकों से मित्रवत् व्यवहार करते थे। उन्हें 'अमाँ-यार'। कहकर सम्बोधित करते थे और उनके साथ बैठकर खाने-पीने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। खूब हँसते-हँसाते थे। हँसते इतने ज़्यादा थे कि उनकी आँखों में पानी भर आता था। हँसने से बाहर आते पान के मलीदे को उन्हें बार-बार ओठों से भीतर समेटना पड़ता और कभी-कभी अपने या सामनेवाले के कपड़े रूमाल से पोंछने पड़ जाते। हँसते-हँसाते नागर जी भी बहुत थे लेकिन नये लेखकों के साथ उनका व्यवहार चचा-ए-बुजुर्गवार का ही होता था, भगवती बाबू की तरह चचा-ए-यारवाला नहीं। गप्प-गपाष्टक का शौक भगवती बाब को नागर जी के मुकाबले में कहीं ज़्यादा था। अफ़सोस कि इतने भले और दोस्ताना भगवती बाबू को भी जोशी जी ने व्यंग्य-बाणों का पात्र बनाया।
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MANOHAR SHYAM JOSHI

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