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राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान भारत को ‘किसान प्रधान देश’ तो बार-बार घोषित किया गया पर उनके वास्तविक हितों की परवाह कर उसे संघर्ष का मुद्दा कम ही बनाया गया। काँग्रेस और मुस्लिम लीग ने तो किसानों के हितों को नजरअन्दाज किया ही, कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत की विशेष स्थिति में मजदूरों के साथ किसानों को भी संगठित करने की अनिवार्यता पर समुचित और समय से ध्यान नहीं दिया। गाँधी तो करबन्दी तक से हिचकते रहे और तब स्वीकार किया जब परिस्थितिवश धनी किसान और जमींदार भी उसके लिए तैयार हो गये थे। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान किसानों की भूमिका पूरी तरह रेखांकित नहीं हो पायी थी। राजनीति का अनुगामी इतिहास वस्तुगत विश्लेषण में असफल हो रहा था। पिछले दो दशकों में इतिहास लेखन के क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है।
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