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आलोचना में चाहे सहमति हो या असहमति, उसका साधार और सप्रमाण होना जरूरी है तभी सहमति या असहमति विश्वसनीय होती है। आलोचना की विश्वसनीयता को सबसे अधिक खतरा होता है मनमानेपन से। आलोचना में तर्क-वितर्क, खण्डन-मण्डन, आरोप-प्रत्यारोप के लिए जगह होती है, पर उतनी ही जितनी विचारशीलता में सत्यनिष्ठा और सच्चाई के लिए जरूरी है। आलोचना सहमति या असहमति के नाम पर ‘मनमाने की बात’ नहीं है। जब आलोचना में मनमानेपन का विस्तार होता है तो आलोचना गैर-जिम्मेदार हो जाती है। गैर-जिम्मेदार आलोचना से वैचारिक अराजकता पैदा होती है। आलोचना में सहमति-असहमति का सन्तुलन तब बिगड़ता है जब खुद को सही मानने की जिद दूसरों को गलत साबित करने की कोशिश बनती है। पुस्तक के पहले निबन्ध में आज की हिन्दी आलोचना में सैद्धान्तिक सोच की दयनीय दशा पर चिन्ता व्यक्त की गयी है। दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें निबन्ध में हिन्दी आलोचना के सामने मौजूद कुछ महत्त्वपूर्ण सवालों पर विचार करने की कोशिश है। बाद के एक निबन्ध ‘उत्तर-आधुनिक युग में मध्ययुगीनता की वापसी’ में समकालीन सांस्कृतिक सन्दर्भ की छानबीन है। बाद के दो निबन्धों में हिन्दी में आत्मकथा की संरचना और संस्कृति पर सोच-विचार है। आगे के दो निबन्धों में दो पुस्तकों की समीक्षाएँ हैं। फिर माधवराव सप्रे, रामचन्द्र शुक्ल, शिवदान सिंह चौहान, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, राजेन्द्र यादव और सुरेन्द्र चौधरी के चिन्तन और लेखन का मूल्यांकन है। पुस्तक में मृदुला गर्ग की कहानियों की संवेदना, सोच और कला के विवेचन के साथ-साथ प्रसिद्ध संस्कृति विचारक अडोर्नो की आलोचना की संस्कृति सम्बन्धी सोच की समीक्षा भी की गयी है।
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MANAGER PANDEY

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