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ज़िन्दगी को शायरी बनाना बहुत मुश्किल होता है, बिल्कुल जैसे टूटे हुए मिट्टी के खिलौनों को जोड़ना। ऐसे हालात में घबराये और परेशान हुए बग़ैर जो काम कुम्हार करता है वही शायर को भी करना चाहिए। मिर्ज़ा ग़ालिब जब ग़ज़ल के संगरेज़ों (पत्थरों) को चुनते-चुनते लहूलुहान हो जाते थे और झुँझलाते हुए यहाँ तक कह देते थे कि - 'कुछ और चाहिए वुसअत (फैलाव) मेरे बयां के लिए' लेकिन फिर एक कमज़ोर और थके हुए कुम्हार की तरह शब्दों की मिट्टी को दोबारा गूँधकर एक नयी शक्ल देते हुए दोस्तों को ख़त लिखने लगते थे लेकिन वह ख़त कहाँ थे ग़ालिब के! ग़ालिब को ख़त लिखने की फ़ुर्सत कहाँ थी! वह तो अपने लहज़े की तलवार को और धारदार बनाने के लिए शब्दों को अपने ही दुख-दर्द के पत्थर पर घिसने लगते थे। दिन, ज़माने और मौसम की तब्दीलियों का असर सबसे ज़्यादा शायरी और उसके बाद लेखन पर आता है। मुनव्वर राना भी अपने आपको इस कैफ़ियत से नहीं बचा सके। उन्होंने बहुत सी नयी तस्वीरों में पुराना रंग और पुरानी शराब में नये महुए की शराब मिलाने की कोशिश की है। उम्मीद है कि उनकी यह कोशिश बेकार नहीं जाएगी। मुनव्वर राना को पढ़ने वाले और उनसे मोहब्बत करने वाले उनकी इस कला की दाद ज़रूर देंगे।
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MUNAWWAR RANA

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