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प्रसिद्ध युवा हिन्दी कवि व संगीत अध्येता यतीन्द्र मिश्र का नया कविता-संग्रह ‘विभास’ कबीर की बानी को समकालीन अर्थों में नये सिरे से खोजने और अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक नया बेहद रचने की कोशिश है। कबीर के प्रसिद्ध प्रतिबिम्बों से यतीन्द्र कुछ नया बनाते हैं हमारे ज़माने के लिए। आज के ज़माने में अगर कबीर होते तो उनकी कविता का स्वर आज किस ढंग से समकालीन प्रत्ययों के साथ हमसे मुख़ातिब होता। नयी शब्दावली और नये प्रश्नों के तहत कबीर की माया को पकड़ने की कोशिश है ‘विभास’। कबीर के ओज के सामने खड़े होने वाले से बनने वाली परछाई रोशनी की ही बनती है, अन्धेरे की नहीं। इसी रोशनी की परछाई से उपजा है ‘विभास’। ‘विभास’ की कविताओं में कबीर मात्र ‘विषय’ नहीं है। यतीन्द्र यहाँ बेहद रोचकता से अपनी भाषा की ऐसी माटी गढ़ पाते हैं जिससे कबीर की कबीरियत और यतीन्द्र की क़ाबिलियत स्वयं ही प्रकट होती है।
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माँ तो अब हैं नहीं...। लेकिन आँगन में पड़ी उनकी खड़ाऊँ अगर एक पर दूसरी चढ़ जाये तो हम झुक के, हाथ से उसे सीधा कर देते हैं। रसोई में गिरी चम्मच, चिमटा, उनकी याद दिला देता है... उनकी छड़ी दिख जाये तो आँचल से पोंछ के, अल्गनी पर टाँग देते हैं। मुस्कुरा लेते हैं, ये सोच के, कि कितनी बार पिटे तो हाथ से पकड़ ली थी...! उनका कड़ा बड़े होकर भी हमारी कलाई से बड़ा है। माथे से छू के, पूजा के स्थान पर रख देते हैं... यतीन्द्र ने ऐसा ही कुछ किया है। ‘कबीर’ की बिखरी हुई सामग्री को सँभाल लिया है... वो सारी चीज़ें अपनी कविताओं में जमा कर दी हैं ताकि अनुभव और उपज की कड़ी टूटे नहीं। -गुलज़ार
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ED. YATINDRA MISHRA

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