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कथाकार जयनंदन आज की आयातित और जबरन थोपी गयी जटिल नव उपभोक्तावादी संस्कृति के जाल में घिरे हुए आम आदमी के जीवन में उभरी आकस्मिक उथल-पुथल और उनकी चिन्ताओं का भावात्मक एवं संवेदनशील रूपक गढ़ते हुए मार्मिक, हृदयस्पर्शी एवं तार्किक भाषायी शब्द-रंगों से कथानक के जरिये गोया पेंटिंग करते हैं। ऐसी पेंटिंग जो अपनी तरफ खींच ले, मुग्ध कर दे और अपनी अभिव्यक्ति से कायल बना दे। जयनंदन एक समर्थ कहानीकार के तौर पर पिछले बत्तीस वर्षों से कथा जगत में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। इनके रचना-संसार का फलक जितना व्यापक है, वैसा हिन्दी में कम ही लेखकों में दिखता है। बाजारवाद के संक्रमण और सामाजिक जीवन-मूल्यों के विचलन से सम्बन्धित कहानियों पर जब भी चर्चा होती है, तो उसमें जयनंदन अनिवार्य रूप से उद्धृत होते हैं। इस संग्रह की कहानियों में वे अनेक सामाजिक अन्तर्विरोधों, विडम्बनाओं और त्रासदियों की पड़ताल करते हैं। कहानी ‘प्रोटोकॉल’ में वे कहते हैं कि इज़्ज़त-आबरू और संस्कृति का लिब्रेलाइज़ेशन नहीं होता...विदेशी मुद्रा से बड़ी हैं ये चीजें। ‘घर फूँक तमाशा’ कहानी में पुत्र के इस सवाल पर कि ‘कारखाने बन्द क्यों हो रहे हैं और रुपया का मूल्य रोज़-ब-रोज़ घटता क्यों जा रहा है?’, पिता कहता है कि ‘इसका जवाब अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अमेरिका के सिवा इस देश में किसी के पास नहीं है।’ इस तरह जयनंदन हिन्दी साहित्य में जो लीक बनाते दिख रहे है वे बहुत लम्बी, गहरी और स्थायी होती जान पड़ रही है।
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JAINANDAN

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