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स्त्री-विमर्श का मामला व्यक्तिगत नहीं सामाजिक है। स्त्री की स्थिति में सुधार लाने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन लाना होगा। वैसे स्त्री अपनी स्थिति को पहचान रही है, अपनी अवस्थाओं को स्वयं आवाज़ दे रही है और खुद महसूस कर रही है कि अपने अधिकार की लड़ाई उसे खुद लड़नी है। स्वातन्त्रयोत्तर लेखिकाओं ने परिवर्तित हो रही स्त्री की स्वतन्त्र मानसिकता को स्वतन्त्र परिवेश में चित्रित करने का प्रयास किया है। यह चित्रण साधारण या सतही ढंग से नहीं, बल्कि आक्रामक भाव से स्त्री की अस्मिता, स्त्री की पहचान, स्त्री की शक्ति, स्त्री की लड़ाई और उससे जुड़े तमाम सवालों को लेकर है। ऐसा लगता है स्वातन्त्रयोत्तर युग में महिला लेखन का विस्फोट हुआ जो आज तक जारी है। मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, दीप्ति खंडेलवाल जैसी लेखिकाओं ने स्त्री के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं से पाठकों को परिचित करवाया है। स्त्री की अस्मिता को एक नयी पहचान देने के साथ-साथ हिन्दी कथा-साहित्य की संवेदना और अनुभव के दायरे में विस्तृत किया। इनकी कई रचनाएँ स्त्री संवेदना की बनी-बनायी लीक को तोड़ने के साथ-साथ एक नयी परम्परा गढ़ने में सफल हुई हैं।
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DR. SUDHA BALAKRISHNAN

Books by DR. SUDHA BALAKRISHNAN
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