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हिंदी भाषा का सामाजिक, राजनीतिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक और वैचारिक विन्यास पिछले पचास सालों में काफी-कुछ बदला है। आज की हिंदी विविध उद्देश्यों को पूरा कर सकने वाली और समाज के विविध तबकों की बौद्धिक व रचनात्मक आवश्यकताएँ व्यक्त कर सकने वाली एक ऐसी संभावनाशील भाषा है जो अपनी प्रचुर आंतरिक बहुलता और विभिन्न प्रभाव जज़्ब करने की क्षमता के लिए जानी जाती है। देशी जड़ों वाली एक मात्र अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी की ग्राहकता में उल्लेखनीय उछाल आया है, और वह अंग्रेज़ी की तत्संबंधित दावेदारियों को गंभीर चुनौती देने की स्थिति में है। ज़ाहिर है कि हिंदी वह नहीं रह गई है जो वह थी। मात्रात्मक और गुणात्मक तब्दीलियों का यह सिलसिला लगातार जारी है। इन्हीं सब कारणों से हिंदी की प्रचलित जीवनी पर पड़ी तारीख बहुत पुरानी लगने लगी है। यह भाषा अपने नए जीवनीकारों की तलाश कर रही है। २३ सितम्बर से २९ सितम्बर, २००९ के बीच शिमला के भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में हुए वर्क शॉप में हिंदी से संबंधित उन प्रश्नों पर दुबारा गौर किया गया जिन्हें आज से चालीस-पैंतालीस साल पहले अंतिम रूप से तय मान लिया गया था। सत्ताईस विद्वानों के बीच सात दिन तक अहर्निश चले बहस-मुबाहिसे के एक-एक शब्द को टेप किया गया। करीब एक हज़ार पृष्ठों में फैले इस टेक्स्ट को सम्पादित करने की स्वाभाविक दिक्कतों के बावजूद पूरी कोशिश की गई कि मुद्रित पाठ को हर तरह से पठनीय बना कर, दोहराव और अस्पष्टताएँ निकाल कर उनके मानीखेज़ कथनों को उभारा जाए। वर्कशॉप की बहस को इस शैली में प्रस्तुत करने का यह उदाहरण हिंदी के लिए संभवत: पूरी तरह से नया है। इस अध्ययन-सप्ताह की शुरुआत इतिहासकार सुधीर चंद्र द्वारा दिए गए बीज-वक्तव्य से हुई। दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श हिंदी की अपेक्षाकृत दो नई धाराएँ हैं जिन्होंने इस भाषा की आधुनिकता के स्थापित रूपों को प्रश्नांकित करने की भूमिका निभाई है। दलितों और स्त्रियों द्वारा पैदा की गई बेचैनियों को स्वर देने का काम ओमप्रकाश वाल्मीकि, अजय नावरिया, विमल थोराट, अनामिका, सविता सिंह और रोहिणी अग्रवाल ने किया। स्त्री-विमर्श में आनुषंगिक भूमिका निभाते हुए उर्दू साहित्य के विद्वान चौधरी मुहम्मद नईम ने यह सवाल पूछा कि क्या स्त्रियों की ज़ुबान मर्दों के मुकाबले अधिक मुहावरेदार होती है। वर्कशॉप में हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाने के उद्यम से जुड़ी समस्याओं और ऐतिहासि• उलझनों की पड़ताल आदित्य निगम और पंकज पुष्कर ने की। बद्री नारायण ने हिंदी साहित्य के भीतर आधुनिकतावादी और देशज प्रभावों के बीच चल रही जद्दोजहद का खुलासा किया। दूसरी तरफ राजीव रंजन गिरि ने हिंदी और जनपदीय भाषाओं के समस्याग्रस्त रिश्तों को कुरेदा। तीसरी तरफ सुधीश पचौरी ने हिंदी पर पड़ रहे अंग्रेज़ी के प्रभाव की क्षतिपूर्ण के सिद्धांत की रोशनी में विशद व्याख्या की। नवीन चंद्र ने साठ के दशक में चले अंग्रेज़ी विरोधी आंदोलन की पेचीदगियों का आख्यान प्रस्तुत किया। अभय कुमार दुबे ने हिंदी को सम्पर्क-भाषा बनाने के संदर्भ में गैर-हिंदीभाषियों के हिंदी संबंधी विचारों का विश्लेषण पेश किया। वैभव सिंह ने सरकारी हिंदी बनाने की परियोजना के विफल परिणामों को रेखांकित किया। अमरेंद्र कुमार शर्मा ने बताया कि आपातकाल के राजनीतिक संकट ने हिंदी के साहित्यिक और पत्रकारीय बुद्धिजीवियों की लोकतंत्र के प्रति निष्ठाओं को किस तरह संकटग्रस्त किया था। स्त्री और दलित विमर्श के उभार से पहले हिंदी की दुनिया राष्ट्रवादी और माक्र्सवादी विमर्श से निर्देशित होती रही है। इन दोनों विमर्शों की प्रभुत्वशाली भूमिका की आंतरिक जाँच-पड़ताल का काम सदन झा, प्रमोद कुमार, अपूर्वानंद और संजीव कुमार ने किया। शीबा असलम फहमी की प्रस्तुति में हिंदी और बहुसंख्यकवादी विमर्श के बीच संबंधों की संरचनात्मक प्रकृति का उद्घाटन किया गया। अविनाश कुमार ने राधेश्याम कथावाचक पर किए गए अनुसंधान के ज़रिए दिखाया कि साहित्य के रूप में परिभाषित होने वाली सामग्री कैसे वाचिक और लोकप्रिय के ऊपर प्रतिष्ठित हो जाती है। रविकांत ने सिनेमा और भाषा के बीच संबंधों के इतिहास को उकेरा, प्रमोद कुमार ने मीडिया में हाशियाग्रस्त समुदायों की भागीदारी का प्रश्न उठाया, राकेश कुमार सिंह ने चिट्ठाकारी (ब्लॉङ्क्षगग) के हिंदी संबंधी अध्याय की जानकारी दी और विनीत कुमार ने उस विशिष्ट प्रक्रिया को रेखांकित किया जिसके तहत टीवी की हिंदी बन रही है।
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ABHAY KUMAR DUBEY

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