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हिन्दी पत्रकारिता : रूपक बनाम मिथक
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नाटकों में एक ऐसा पात्र भी होता है जो रंगमंच पर कभी दृष्टिगोचर नहीं होता, पर वह नाटक के समस्त कार्य-व्यापार का जनक होता है, उसके संवादों की अन्तर्वस्तु होता है, पात्रों के चरित्र का नियामक एवं नियन्त्रक होता है। ऐसे पात्रों को 'मैगुफिन' कहा जाता है। आज के समाज और जीवन में भूमंडलीकरण और बाजारवाद की भूमिका मैगुफिन' की तरह है, जो पूँजीवाद के ही नये अवतार या आधुनिक संस्करण हैं। आज से साठ-पैंसठ साल पहले अमेरिका में एक बहुचर्चित किताब प्रकाशित हुई थी जिसका नाम है 'विदाउट क्राइस्ट एंड विदाउट मार्क्स'। यह पुस्तक घोषणा करती है कि जल्दी ही दुनिया को एक ऐसी क्रान्ति आलिंगन में लेने वाली है जो इंसानियत और साम्यवाद से तो पैदा नहीं होगी, पर इन दोनों से बहुत बड़ी होगी। जाहिर है, लेखक का इशारा प्रौद्योगिकी से आयी बाजारवादी क्रान्ति से था, संचार माध्यमों से उपजे भूमंडलीकरण से था। सन् 1957 में ही बर्टेड रसेल ने दुनिया को सावधान किया था कि 'आज जिस व्यक्ति के हाथों में प्रचुर यान्त्रिक शक्तियाँ हैं, उसे नियन्त्रित नहीं किया गया तो वह अपने आपको सर्वशक्तिमान देवता समझने लगेगा' । यहाँ सर्वशक्तिमान से उसका आशय विष्णु से नहीं था, बल्कि इंद्र जैसे स्वार्थी और सत्तालोलुप देवता से था जो अपनी महत्त्वाकांक्षा-पूर्ति के लिए अपनी मर्यादा को भी दांव पर लगा देता है या उस अग्नि से था जो सर्वभक्षी होती है, जो जंगल को ही नहीं, सागर को भी लपटों में ले लेती है, इसीलिए भारतीय मनीषा ने आत्मरक्षा के लिए सबसे पहले उसकी ही प्रार्थना की है। हरबर्ट आई शिलर ने अपनी पुस्तक 'संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व' में इस मान्यता को पुष्ट किया है कि कारखानों में बने उपभोक्ता सामानों के लिए बनी बाज़ारव्यवस्था आज दुनिया के स्तर पर विचार, स्वाद और विश्वास की बिक्री के लिए उपयोग में लायी जा रही है। वास्तव में विकसित पूंजीवाद की वर्तमान मंजिल से सूचना का उत्पादन, वितरण पूरी दुनिया में हर तरह से प्रधान और अपरिहार्य कार्यकलाप बन गये हैं। गरज कि साम्राज्यवाद की गतिविधियों केवल आर्थिक और राजनीतिक परिधियों में ही सीमित नहीं रहतीं, बल्कि सुरसा की तरह अपने जबड़े में सामाजिक और सांस्कृतिक सूत्रों एवं स्रोतों को भी ले लेती हैं। पत्रकारिता भी समाज सापेक्ष सत्ता है और मूलतः उद्योगवाद की सन्तान है तो उसे बाजारवाद या मुनाफावाद से तटस्थ रहने और रखने की हिदायत और नसीहत कैसे दी जा सकती है। बाजारवाद के सर्वग्रासी माहौल में स्वतन्त्रता-पूर्व की पत्रकारिता की तरह साम्बी और तापसी होने की आशा क्या दुराशा नहीं होगी? खासकर उस परिस्थिति में, जब हमारी पूरी प्रकृति और संस्कृति ही बाजारवाद का आखेट बन गयी हो..... (इसी पुस्तक से)
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DR. ANUSHABDA

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