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बीस बरस
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'बीस बरस' की एक खासियत यह है कि यह पूरी तरह गाँव की जमीन पर लिखा गया उपन्यास है। और यह गाँव पूरी तरह वह गाँव नहीं है, जो ‘पानी के प्राचीर' और 'जल टूटता हुआ' के बाद उनसे छूट गया था। यह काफी हद तक एक बदला हुआ गाँव है। और कहीं-कहीं तो यह इस कदर बदल गया है कि उस बदले हुए गाँव के यथार्थ का सामना करने में उपन्यास के कथानायक दामोदर जी को, जो बीस बरस बाद अपने गाँव लौटे हैं, बेहद मुश्किलों तथा कशमकश से गुजरना पड़ता है। आखिरकार इन अनपेक्षित अनुभवों की एक लम्बी श्रृंखला से गुजरकर वे खुद को इस कदर असहज और आहत-किसी कदर अपमानित भी-पाते हैं कि अपनी छुट्टियाँ बीच में ही काटकर वापस दिल्ली लौटने का फैसला कर लेते हैं। जाहिर है, दामोदर जी जो दिल्ली के एक बड़े पत्र ‘नवज्योति' के प्रधान सम्पादक हैं, वे दिल्ली को कोई बड़ा आदर्श नगर नहीं मानते। दिल्ली की बदसूरती और रूखेपन, हृदयहीन कंक्रीटी सच्चाइयों, स्वार्थ और हिंसा से वे बेगाने नहीं है। शायद इसी कारण बरसों तक दिल्ली में रकर भी वे कभी दिल्ली के नहीं हुए और लगातार मन से गाँव में ही रहते हुए, गाँव में साँस लेते रहे। पर बरसों बाद अपने ही गाँव में आने के बाद उन्हें लगा कि यह तो वह गाँव नहीं है, जिसके लिए वे इतना बरसते और तड़पते थे।
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DR. RAMDARASH MISHRA

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