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धर्म और धर्मसत्ता
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धर्म में सत्ता का तत्त्व हो, यह बात समझ में नहीं आती, लेकिन धर्म जहाँ भी पाया जाता है, अपनी सत्ता के साथ ही पाया जाता है। सच तो यह है कि व्यक्ति का धर्म धर्म नहीं होता। वह उसका अपना विचार होता है। धर्म को अगर व्यक्तिगत मामला बना दिया जाए, तो धर्म का अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। वास्तव में, एक विचारधारा के रूप में धर्म का अस्तित्व समुदाय से है। कोई भी समुदाय अपनी शक्ति या संख्या कम नहीं करना चाहता, इसीलिए जन्मना हिन्दू या जन्मना मुसलमान जैसी घटना अभी भी अस्तित्व में है। वरना चेतना के विकास के साथ-साथ जन्म से जुड़े इस तर्क को कभी का ख़त्म हो जाना चाहिए था। हम सभी जानते हैं कि ईश्वर किसी को हिन्दू या मुसलमान बना कर नहीं भेजता, ‘पुण्य' का यह काम हम ख़ुद करते हैं। परन्तु मनुष्य की इस अधिनायकवादी क्षमता को किसी भी धर्मशास्त्र में चुनौती नहीं दी गयी है। वास्तव में धर्म के खिलाफ पहला तर्क यहीं से पैदा होता है। क्या यह बात अजीब नहीं लगती कि व्यक्ति धर्म को नहीं चुनता, बल्कि धर्म ही व्यक्ति को चुनता है? मानो धर्म झाड़ी में दुबका हुआ कोई जानवर हो जो किसी का जन्म होते ही उस पर हमला कर देता है। ख़ुद धर्म में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह आदमी को अपनी ओर आकर्षित करे। इसीलिए धर्म के प्रसार में माँ-बाप का सहारा लिया जाता है, जिनके सामने हर बच्चा असहाय होता है। कितना अच्छा हो, अगर बच्चों को, जन्म लेते ही, समाज से अलग करने का कार्यक्रम कुछ समय तक चलाया जाए। तभी उसका समग्र विकास हो सकता है। अपनी सन्तान पर अपना धर्म लादने की कुप्रथा ख़त्म हो जाए, तो देखना है कि पचास साल बाद कितने हिन्दू रह जाते हैं, कितने मुसलमान और कितने सिख।
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RAJ KISHORE

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