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ख़ुद पर निगरानी का वक़्त
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कविता लिखने की पाँच दशक से भी लम्बी यात्रा में संवेदना और विवेक के अनेक पड़ावों से होते हुए चन्द्रकान्त देवताले अब ‘भाषा’ की उस ‘धरती’ पर आ पहुँचे हैं जहाँ से वे अपने आसपास से लेकर दूर-दूर तक की समकालीन दुनिया की दशा-दिशा पर पैनी नजश्र गड़ाये रखने के साथ-साथ ‘ख़ुद पर भी निगरानी’ रखे हुए हैं और एक बेहद सजग कवि के रूप में कभी ‘खामोशी में दुबके हुए/औरतों-बच्चों और नदियों के आँसुओं का अनुवाद’ कर रहे हैं तो कभी ‘अन्तिम साँस तक डोंडी पीटने’ की जिश्म्मेदारी निभा रहे हैं। भूमंडलीकरण और आवारा पूँजी के साम्राज्यवाद के सामने यह देवताले की कविता का नया आयाम और उसकी नयी भूमिका है। एक दौर में जिस कवि ने ‘चन्द्रमा को गिटार की तरह बजाने’ और ‘आकाश के एक टुकड़े को टोपी की तरह पहनने’ की ख़्वाहिश की हो, उसकी कविता की आवाजश् पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा प्रत्यक्ष-बेबाक, ज्यादा सामाजिक और ज्यादा राजनीतिक हुई है और यह संग्रह उसी का एक गुणात्मक विस्तार है। यहाँ समकालीन समय के सियासी-समाजी हादसों, अन्यायों और दुखों की गहरी शिनाख़्त तो है, सत्ता और शक्ति की विभिन्न आक्रामक संरचनाओं के विरुद्ध ‘चीखते रहने’ की कवि-नियति का सहर्ष स्वीकार भी है।
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CHANDRAKANT DEVTALE

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