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हिमालय का कब्रिस्तान
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हिमालय के साथ दिक़्क़त यह है कि हमारे उसे देखने के नज़रिये में या तो ख़ूबसूरती है या गहरी देव-तुल्य आस्था। अफ़सोस यह है कि सरकारों की मानवीय नीतियाँ भी यहीं से शुरू होती हैं और ख़त्म भी यहीं हो जाती हैं। यही नज़रिया दुर्भाग्यपूर्ण है। हिमालय हमें जाने क्यों देवदूत दिखता है! मानो ईश्वर से संवाद का रास्ता यहीं से गुज़रकर जाता है। विडम्बना देखिए, हम एक ओर हिमालय की जड़ें खोद रहे हैं तो दूसरी ओर जब कोई पत्थर गिरता है तो उसे हम दैवी आपदा का नाम दे देते हैं। चाहे वो भूकम्प हो या भूस्खलन। ऊपर से ये घोर बाज़ारवादी मानसिकता, जिसने हिमालय की हर चोटी, हर सम्पदा पर प्राइस टैग लगा दिया है। हिमालय के पानी तक को हमने बोतलबन्द कर दिया है, बस डिब्बाबन्द हिमालय आने का इन्तज़ार बाकी है। गौर से देखें तो रंगीन तस्वीरों, फिष्ल्मी दृश्यों में हिमालय हमेशा मुस्कराता दिखता है। धरती का सबसे सुन्दर ठिकाना भी यही लगता है। आप जब भी इन दृश्यों को देखते हैं तो एक नयी अनुभूति भी पाते हैं। लेकिन, जाने क्यों हमारे कल्पना-लोक में हिमालय की निशानदेही फ़िल्मी दृश्यों की ख़ूबसूरत लोकेशनों से आगे नहीं बढ़ पाती है। एक फ़िल्म, कुछ तस्वीरें और कैरियरवादी वाइल्डलाइफ़ या नेचुरल-फ़ोटोग्राफर जो देखते हैं या हमें दिखाने के लिए अपने कैमरों में दर्ज़ कर ले जाते हैं वही हिमालय का सच नहीं है। न हिमालय पोलर बियर के फर से बना कोई टैडी बियर है। मौजूदा कानूनों, नियमों और नीतियों से टूटता-बिखरता, सड़ता-गलता हिमालय न हमें दिखता है और न ही दिखाया जाता है। संक्षेप में, हिमालय की याद तभी आती है जब मई-जून की गर्म हवाएँ किसी गाँव-शहर की सरहद में दाख़िल होकर हमें तड़पा देने की हद तक तपा देती हैं। पहाड़ों को लेकर हमारा रुझान बच्चों की छुट्टियों तक सीमित है। आश्चर्य होता है, हिमालय हमारे लिए इन तात्कालिक ज़रूरतों से ज़्यादा कुछ नहीं है। और मान भी लें कि हिमालय को पहचानने का हमारा हुनर यही है, लेकिन फिर सोचिए वैसा हिमालय आपको कैसा लगेगा जिसमें न बर्फ़ हो, न बादल हों और न हरियाली। केदारनाथ की तबाही, कश्मीर का जलजला और नेपाल का भूकम्प यही संकेत दे रहे हैं और हम सब तबाही की एक और नयी तारीख़ का इन्तज़ार कर रहे हैं।
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LAXMI PRASAD PANT

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