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मॉरिशस : एक सांस्कृतिक यात्रा
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जैसे यात्रा के प्रयोजन विविध होते हैं वैसे उसके साधन भी अनेक होते हैं। आदियुग से आधुनिक युग तक यात्रा के प्रयोजन और साधनों में लगातार बदलाव आता रहा। आज यात्रा को सम्पत्ति अधिक सुकर बनाती है किन्तु उससे समय और श्रम को बचाया जा सकता है। विश्वग्राम और विश्वमानव की संकल्पना के मूल में यात्रा और उसके अधुनातन साधन ही निहित हैं। दुनिया की दूरियाँ मिटाने के लिए यात्रा ही सबसे अहम साधन साबित होती है। यात्री ही अपनी यात्रा के मकसद को हासिल कर सकता है। मॉरिशस का माहौल ही ऐसा था जिसने लिखने के लिए बाध्य किया। मेरी यह धारणा है कि एक हज़ार किताबें पढ़ने से उतना नहीं पा सकते, जितना एक लम्बी यात्रा से। इस रचना का एक और तात्कालिक कारण भी मानना पड़ेगा। साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, मुम्बई, हिन्दी प्रचारिणी सभा, मॉरिशस तथा महात्मा गाँधी संस्थान, मॉरिशस द्वारा भारत-मॉरिशस अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन करना और उसमें प्रतिभागियों के लिए यात्रा-वृत्तान्त लेखन प्रतियोगिता होना। यदि यह प्रतियोगिता न होती तो शायद यह रचना भी न लिखी जाती। अपने जीवन में मैंने भारतवर्ष की यात्राएँ तो काफ़ी कीं, जम्मू-कश्मीर से कन्याकुमारी तक, हिमालय, शिमला, हरिद्वार और ऋषिकेश से लेकर त्रिवेन्द्रम, पांडिचेरी तक। लेकिन ये यात्राएँ अपनी धरती, अपने लोगों के बीच की थीं। मॉरिशस की यात्रा ही मेरी पहली विदेशी यात्रा थी। इसके पहले अमेरिका के न्यूयॉर्क में वर्ष 2007 में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजक द्वारा मुझे निमंत्रित किया गया था लेकिन वीज़ा न मिलने के कारण जा नहीं सका। मॉरिशस यात्रा ही पहली विदेशी यात्रा होने की वजह से ‘क्या होगा? कैसे होगा?’ को लेकर जिज्ञासा के साथ-साथ चिन्ता भी थी। लेकिन मॉरिशस की इस यात्रा को केवल लाजवाब कहना पड़ेगा । पहले जो ‘चिन्ता’ थी मॉरिशस के पूरे माहौल को देख ‘चेतना’ में बदल गयी और चेतना ‘चिन्तन’ में । यही चेतना और चिन्तन प्रस्तुत रचना की पंक्तियों में साकार है ।
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Arjun Chahvan

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