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‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ विख्यात गीतकार इकराम राजस्थानी के रसीले राजस्थानी गीतों का नज़राना है। राजस्थानी मिट्टी और संस्कृति से आत्मीय लगाव के चलते इन्होंने अपना उपनाम ही ‘राजस्थानी’ रख लिया है। इन्होंने स्वीकार भी किया है: ‘राजस्थानी’ हो गयो, अब म्हारो उपनाम। मैं मायड़ रो लाडलो, जग जोणे ‘इकराम’।। ‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ में संकलित गीत राजस्थानी भाषा की मिठास के साथ-साथ राजस्थान की मिट्टी-पानी-हवा की सोंधी गन्ध से भी सुवासित हैं। इन गीतों में राजस्थान की क्षेत्रीय विशेषताओं का आत्मीय चित्रण किया गया है और वैयक्तिक शैली में वहाँ की प्राकृतिक-भौतिक सम्पदा के बारे में लिखा गया है। जैसे एक गीत में राजस्थान की धरती को सम्बोधित करते हुए कहा गया है: थारी भूरी भूरी रेत, थारे कण कण मांही हेत, म्हारे काकना की लागे तू तो कोर माटी म्हारे हिवड़ा मांही नाचे, मीठा मोर माटी। ‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ में कुछ ऐसे गीत भी हैं जो पुरुष और स्त्री के संवादों के रूप में रचे गये हैं, इनमें लोकगीत की जानी-पहचानी शैली का आभास मिलता है। गीत संग्रह में ‘गाथा पन्ना धाय री’ जैसे लम्बे गीत भी हैं जो गायन के साथ-साथ मंचन की ख़ूबियों से युक्त हैं। कुल मिलाकर इन रचनाओं में लक्षित की जाने वाली अन्यतम विशेषता है जातीयता का उभार और लोकगीत की प्रचलित शैली का पुनराविष्कार।
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Ikraam Rajasthani

Books by Ikraam Rajasthani
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