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भूखण्ड तप रहा है
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'भूखण्ड तप रहा है' चन्द्रकान्त देवताले की लम्बी कविता का नाट्य रूपान्तरण है और प्रस्तुतकर्ता हैं-स्वतन्त्र कुमार ओझा। प्रकृति के प्रगाढ़ और द्वन्द्वात्मक रिश्तों के बीच मनुष्य ने अपने अस्तित्व को खोजा है। वर्तमान उपलब्धि करोड़ों लोगों के अनवरत अनथक श्रम व बुद्धि पर आधारित है। लेकिन आज यंत्र-संस्कृति ने मनुष्य की आत्मा के स्पन्दनों को रौंद डाला है। नाटक के माध्यम से इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने की कोशिश की गयी है कि वे कौन सी चीजें हैं जो आदमी को उसकी जड़ों से काटकर आदमी बनने से रोकती हैं। नाटक अति रोचक, संवेदनशील, प्रभावशाली व वर्तमान स्थिति को स्पष्ट करने में समर्थ है। नाटक का कथानक सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक है।
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CHANDRAKANT DEVTALE

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