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भारत में पब्लिक इंटैलैक्चुअल
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पुस्तकों को प्रतिबन्धित करने या उन्हें लुगदी बना देने की माँग तेज़ी से बढ़ती जा रही है और इसके साथ ही लेखकों को विद्वेषपूर्ण और ज़हरीले तरीके से अपमानित किया जा रहा है। सोशल मीडिया में तो यह कुछ अधिक ही होता है , ऐसा अपमान उन लोगों की तरफ़ से ज़्यादा होता है जिन्होंने उस पुस्तक को पढ़ा ही नहीं है, जिस पुस्तक को वे धिक्कारते हैं। प्रायः तो यही स्थिति देखने को मिलती है। अब प्रकाशक किसी पुस्तक को छापने से पहले कानूनी सलाह लेने लगे हैं। धर्म या ईश निन्दा से सम्बन्धित क़ानूनों का भी क़ानूनी दुरुपयोग होता है। फ़िल्मों और वृत्तचित्रों को प्रतिबन्धित कर दिया जाता है या फिर यह धमकी दी जाती है कि उन्हें प्रतिबन्धित कर दिया जायेगा या फिर उन्हें बिना किसी विश्लेषण के अभिविवेचित (सेंसर) कर दिया जाता है। जैसे बच्चों का खिलौना चकरघन्नी घूमती रहती है, ऐसे ही फ़िल्मों के लिए सेंसर का उपयोग या दुरुपयोग लगातार होता रहता है और ऐसा दुरुपयोग तो अब हर नुक्कड़ की भाषा बन गयी है। सोशल मीडिया में इसका भरपूर दुरुपयोग होता है जबकि व्यक्ति को निशाना बनाया जाता है। व्यापारिक विज्ञापनों और बम्बई में बनने वाली फ़िल्मों या उसके प्रान्तीय भाषाओं के संस्करण, दृश्य मीडिया में उस ईर्ष्यालु (डाही) जीवन-शैली को दिखलाते हैं जो ‘पश्चिम’ की नक़ल है। परन्तु इस पर चर्चा नहीं होती। इस प्रकार का प्रकट प्रदर्शन, जिसे कुछ पश्चिमीकरण कहते हैं और कुछ की नज़र में आधुनिकता है, क्या वास्तव में मात्र नक़ल है या यह आधुनिकता के प्रभाव से परिवर्तन पश्चिमी जीवन-शैली के प्रतीकों के सदृश है। यह परिवर्तन नहीं है जब हमारे राजनेता यह कहते हैं कि महिलाओं के साथ बलात्कार इसलिए होता है कि वे बहुत चुस्त कपडे़ पहनती हैं या फिर पश्चिमी नारी की नक़ल करते हुए जींस पहनती हैं।
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Romila Thapar

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