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‘‘इक्कीसवीं सदी में, हिन्दूवाद में एक सार्वभौमिक धर्म के बहुत-से गुण दिखाई देते हैं। एक ऐसा धर्म, जो एक निजी और व्यक्तिवादी धर्म है; जो व्यक्ति को समूह से ऊपर रखता है, उसे समूह के अंग के रूप में नहीं देखता। एक ऐसा धर्म, जो अपने अनुयायियों को जीवन का सच्चा अर्थ स्वयं खोजने की पूरी स्वतन्त्रता देता है और इसका सम्मान करता है। एक ऐसा धर्म, जो धर्म के पालन के किसी भी तौर- तरीक़े के चुनाव की ही नहीं, बल्कि निराकार ईश्वर की किसी भी छवि के चुनाव की भी पूरी छूट देता है। एक ऐसा धर्म, जो प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं सोच-विचार करने, चिन्तन-मनन और आत्म-अध्ययन की स्वतन्त्रता देता है।’’ ‘‘हिन्दूवाद एक अन्तर-निर्देशित या अन्तर-उन्मुख धर्म है जो आत्म-बोध पर और आत्मा और ब्रह्म (परमात्मा) के मिलन या एकात्मता पर ज़ोर देता है। दूसरी तरफ़, हिन्दुत्व एक बाह्य-उन्मुख धारणा है, जो एक राजनीतिक उद्देश्य के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान पर केन्द्रित है। इसलिए ‘हिन्दुत्व’ हिन्दूवाद के केन्द्रीय सिद्धान्तों और मान्यताओं से पूरी तरह कटी हुई धारणा है। फिर भी यह हिन्दूवाद की पीठ पर सवार होकर और इसका प्रतिनिधित्व करने का दावा करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है। यह हिन्दू धर्म को ईश्वर के साथ जुड़ने के माध्यम की बजाय एक सांसारिक-राजनीतिक पहचान के बिल्ले के रूप में देखती है। इसका स्वामी विवेकानन्द या आदि शंकराचार्य के हिन्दूवाद से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।’’ ‘‘ ‘हिन्दुत्व अभियान’ आत्मविश्वास का प्रतीक न होकर असुरक्षा की भावना का सूचक है। यह अतीत में बार-बार मुसलमानों के हाथों हिन्दू राजाओं की पराजय और अपमान की कथाओं और विजेताओं द्वारा मन्दिरों के विनाश और ख़ज़ानों की लूट की घटनाओं की याद दिलाते रहने पर ही टिका हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो हिन्दुत्व वृत्तान्त हिन्दुओं को ‘पीड़ित’ के रूप में प्रस्तुत करता है, न कि एक महान सभ्यता और धर्म के गर्वीले प्रतिनिधियों के रूप में। यह विफलता और पराजय की भावना का वृत्तान्त है, न कि एक महान और विश्व के सबसे उदात्त धर्म का आत्मविश्वास भरा वृत्तान्त। यह अतीत की विफलताओं की स्मृतियों में क़ैद वृत्तान्त है, इसलिए इसे एक विकासशील वर्तमान और सुनहरा भविष्य दिखाई ही नहीं देता।’’ ‘‘एक हिन्दू के रूप में मैं ऐसे धर्म से सम्बन्ध रखता हूँ जो मेरे पूर्वजों के प्राचीन ज्ञान से ओत-प्रोत है। मैं अपनी जन्मभूमि में अपने धर्म के इतिहास पर गर्व करता हूँ। मैं आदि शंकराचार्य की यात्राओं पर गर्व करता हूँ, जिन्होंने देश के दक्षिणी छोर से उत्तर में कश्मीर तक और पश्चिम में गुजरात से पूर्व में ओडिशा तक यात्राएँ करते हुए हर जगह विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किया, धार्मिक प्रवचन दिये और अपने मठ स्थापित किये। मेरी इस भावना को हार्वर्ड की विद्वान डायना ईक के भारत के ‘पवित्रा भूगोल’ की इन पंक्तियों से और बल मिलता है- ‘तीर्थयात्राओं के अनेकानेक भागों से आपस में गुँथे लोग’। महान दार्शनिक और भारत के राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने हिन्दुओं को परिभाषित करते हुए लिखा था- ‘एक साझे इतिहास, साझे साहित्य और साझी सभ्यता वाली विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई’। हिन्दूवाद के साथ अपना जुड़ाव व्यक्त करते हुए मैं सचेत रूप से इस भूगोल और इतिहास, साहित्य और सभ्यता का वारिस होने का दावा करता हूँ; (करोड़ों अन्य वारिसों के साथ) उस आराध्य परम्परा का उत्तराधिकारी होने का दावा, जो युगों-युगों से यूँ ही चली आ रही है।’’
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Shantanu Tiwari
- It was a wonderful experience going through the book.
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The depth of knowledge of the writer is excellent. The references and the incidences quoted are very good. I was fully engrossed , begin to end until i finished the book.
Quality Price Value
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