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सर्वहारा रातें
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उन्नीसवीं सदी के फ्रांसीसी मज़दूरों के जीवन और राजनीति को केंद्र, बना कर ज़ाक राँसिएर द्वारा रचे गए इस ग्रंथ 'सर्वहारा रातें' का। प्रकाशन सत्ताइस साल पहले फ्रांस में ला नुई दे प्रोलेतेह' के रूप में हुआ था। इसे पढ़ते वक्त हिंदी पाठकों के दिमाग में कई सवाल उठेंगे। सर्वहारा रातों की यह पेचीदगी हिंदी पाठकों को दिखाएगी कि एक तरफ़ कम्युनिस्ट पार्टी जनता का वैज्ञानिक सत्य खोज़ कर उसे थमाना चाहती है, दूसरी तरफ़ पार्टी के बाहर खड़े हुए वामपंथी और रैडिकल बुद्धिजीवी जनता के सत्य के नाम पर उसकी नुमाइंदगी का दावा कर रहे हैं। एक तीसरी ताक़त भी है जो मजदूर वर्ग से ही निकली है : उसके शीर्ष पर बैठा हुआ उसका अपना प्रभुवर्ग। वह भी अपने हिसाब से मजदूरों को इतिहास के मंच पर एक ख़ास तरह की भूमिका में ढालना चाहता है। सर्वहारा जिस यूटोपिया के लिए संघर्ष कर रहा है, उसके प्रतिनिधित्व की इन कोशिशों का आख़िर आपस में क्या ताल्लुक है? नए समाज का सच्चा वाहक कौन है : वह मजदूर जो लोकप्रिय जन संस्कृति की शुद्धता कायम रखते हुए क्रांतिकारी गीत गा रहा है, या वह जो बूर्वा वर्ग की भाषा में कविता लिखने की कोशिश कर रहा है? श्रम की महिमा का गुणगान करने वाला मजदूर। अधिक बगावती है, या मेहनत-मशक्कत की ज़िन्दगी को अपने बौद्धिक विकास में बाधक मानने वाला मज़दूर ज्यादा बड़ा विद्रोही है? कुल मिला कर यह किताब सर्वहारा वर्ग की चेतना के रैडिकल यानी परिवर्तनकामी सार की नए सिरे से शिनाख़्त करना चाहती है। वह न तो माक्र्स के इस आकलन से सहमत है कि केवल आधुनिक पूँजीवाद के कारखानों में अनुशासित हो कर ही मजदूर अपनी मुक्ति की वैज्ञानिक चेतना से लैस हो सकता है, और न ही वह समाजवादी । विचार का बुनियादी स्रोत दस्तकार-श्रमिकों के जीवन और भाषा में खोजने की परियोजना की पैरोकार है। यह किताब कहती है कि मजदूर तो कुछ और ही चाहता है। बग़ावत करने की उसकी वजहें कुछ और ही हैं। सर्वहारा रातें' मजदूर की जिंदगी के इस कुछ और' ही का पता लगाने की कोशिश करती हुई नज़र आती है।
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ABHAY KUMAR DUBEY

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