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खाँटी घरेलू औरत
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एक लेखक का रचाव और सृजन-माटी जिन तत्वों से बनती है उनमें गद्य, पद्य और नाट्य की समवेत सम्भावनायें छुपी रहती हैं। ममता कालिया ने अपनी रचना-यात्रा का आरंभ कविता से ही किया था। इन वर्षों में वे कथाजगत में होने 56 के बावजूद कविता से अनुपस्थित नहीं रही हैं। प्रस्तुत कविता-संग्रह 'खाँटी घरेलू औरत' उनकी इधर के वर्षों में लिखी गई ताज़ा कविताओं को सामने लाता है। खाँटी घरेलू औरत उनके जेहन में महज़ 1 एक पात्र नहीं वरन् एक विराट प्रतीक है जीवन के उस फ्रेम का जिसमें हर्ष और विषाद, आल्हाद और उन्माद, प्रेम और प्रतिरोध, सुख और असंतोष कभी अलग तो कभी गड्ड-मड्ड दिखाई देते हैं। शादी की अगली सुबह हर स्त्री खाँटी घरेलू की जमात में शामिल हो जाती है। इस सच्चाई में ही दाम्पत्य का सातत्य है। ममता कालिया की कविताओं की अंतर्वस्तु हमेशा उनका समय और समाज रही है। सचेत संवेदना, मौलिक कल्पना, अकूत ऊर्जा और अचूक दृष्टि से तालमेल से ममता का कविजगत निर्मित होता है। इन रचनाओं में जीवनधर्मिता और जीवन में संघर्षधर्मिता का स्वर सर्वोपरि है। इसलिये ये कविताएँ संवाद भी हैं और विवाद भी। इनमें चुनौती और हस्तक्षेप, स्वीकार और नाकार, मौन और सम्बोधन, सब सम्मिलित हैं। विवाह और परिवार के वर्चस्ववादी चौखटे, स्त्री की नवचेतना से टकरा कर दिन पर दिन कच्चे पड़ रहे हैं। स्त्री और पुरुष की पारस्परिकता एक अनिर्णीत शाश्वतता है जिसमें समता और विषमता घुली मिली रहती हैं। खाँटी घरेलू औरत इन सब स्थितियों का जायज़ा लेती है। जब-जब पुरुष उसे प्रताड़ित करेगा, यह स्त्री नेपथ्य से निकल कर केन्द्र में आ जाएगी और बुलंद आवाज़ में बताएगी कि वह बराबर की मनुष्य है, अतः उसका भी है बराबर का भविष्य समाज में स्त्री की स्थिति की प्रतीति अपने मंद और प्रदीप्त रूपों में इन कविताओं में उपस्थित है। यह कोई मिथकीय, अतिमानवीय, अप्रकट दैवी शक्ति नहीं है। कवि ने उसे हाड़ माँस का व्यक्तित्व प्रदान किया है जो अपनी यथार्थ, गतिशील और प्रचेतप्रज्ञा से पुरुष समाज को लगातार आकुल आश्चर्य में छोड़ कर आगे बढ़ जाता है। परिवार के परिवेश में जीते हुए, अपनी बात रखते हुए, स्त्री, यदि झुकेगी तो जीतने के लिये; यदि रुकेगी तो आगे बढ़ने के लिये। ऐसी अदम्य, अपराजेय स्त्री समूची दुनिया की समानधर्मी स्त्रियों से अन्ततः यही कह सकती है कि “खाँटी घरेलू औरतों, एक हो जाओ!"
About the writer
MAMTA KALIA

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