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''पूँजी'' का अन्तिम अध्याय
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मार्क्स ने पूँजीवाद के वैश्विक विकास की जो कल्पना की थी, उससे आज की दुनिया बिलकुल अलग रूप से विकसित हुई है। लेकिन मनुष्य और मानव श्रम, जिसकी केन्द्रीयता को उन्होंने उजागर किया था, को अमान्य कर आज मनुष्य का अस्तित्व भी कायम नहीं रह सकता। उद्योग निर्मित वस्तुएँ और उनका ज़ख़ीरा, जिसे धन-सम्पत्ति या पूँजी के रूप में चिह्नित किया जाता है, मनुष्य को नज़रअन्दाज़ करने पर कबाड़ के ढेर से ज़्यादा कुछ नहीं है, क्योंकि उनकी गुणवत्ता, उपयोग और मोल मनुष्य के आकलन से ही अस्तित्व में आता है। अगर मार्क्स आज पूँजी का अन्तिम खंड या अध्याय लिखते तो उसकी दिशा क्या होती, उसका कुछ आभास पुस्तक के अन्तिम अध्याय में प्रस्तुत तथ्यों से मिल सकता है। इससे समाज के नवनिर्माण सम्बन्धी उसकी निष्पत्ति भी उसकी प्रारम्भिक कल्पना से अलग होती। पुस्तक में अनेक जगह अंग्रेज़ी में प्रकाशित विचारों से उद्धरण दिए गए हैं, जिनका अनुवाद लेखक का अपना है। सिर्फ़ मूल ग्रन्थ पूँजी के उद्धरण सोवियत यूनियन में प्रकाशित अनुवाद से लिए गए हैं, हालाँकि ये काफ़ी जगह आसानी से बोधगम्य नहीं हैं। शायद यह समस्या हिन्दी में लिखनेवाले अधिकांश लेखकों के सामने उपस्थित होती है। - सच्चिदानन्द सिन्हा
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SACHCHIDANAND SINHA

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