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वैश्वानर
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मैं जानता हूँ कि हमारा बौद्धिक कितना नकलची और अज्ञान के ज्ञान में मस्त रहनेवाला प्राणी है। उसे अगर बाइबिल या कुरान सुनाया जाये तो वह प्रशंसा के अतिरिक्त एक शब्द नहीं कहेगा; परन्तु यदि हम वैदिक युग की मान्यताओं के अनुरूप कुछ भी लिखें तो वह उसे रासायनिक प्रक्रिया कहकर नाक-भी सिकोड़ेगा। उसे सर्वत्र अलग देखने की बीमारी है। हमारे पास इस मनोवैज्ञानिक प्रत्यय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जो मंत्रशक्ति द्वारा घटित चमत्कारों की यथार्थता पर कुछ प्रकाश डाल सके। हमारे जीवन के पृथ्वी पर अवतरित होने से लेकर मरने तक की प्रक्रिया में मंत्र द्वारा सारे कर्मकाण्ड सम्पादित होते हैं। विवाह से मरण तक मंत्रों की शय्या है जिसपर हमारी जीवात्मा प्रयाण करती है। मेरे पास कोई भी ऐसा वस्तु तथ्य नहीं है कि मैं इन मंत्रों की शक्ति को शत-प्रतिशत विश्वास के साथ साबित कर सकूँ या उनका निरसन कर सकूँ। इसलिए आपको वैदिक युग में ले जाने के लिए मेरे पास यथार्थ का युग में ले जाने के लिए मेरे पास यथार्थ का कोई साधन नहीं है। जिन्हें पृथ्वी सूक्त, पुरुष सूक्त, नासदासीत सूक्त, श्री सूक्त, भू सूक्त आदि किंचित् भी प्रभावित नहीं करते उनसे में आशा नहीं करता कि इस उपन्यास में उन्हें कुछ भी प्रशंसनीय मिलेगा। जो मानव के इतिहास को कम, लीजेंड को ज़्यादा प्रभावी मानते हैं उनसे यह आशा की जा सकती है कि वे कुछ किंवदन्तियों को यदि आनन्दपूर्वक सुनते-सुनाते हैं तो यह उपन्यास उन्हें सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करेगा और हो सकता है कि वैसी स्थिति में इस औपन्यासिक कुंजों में चंक्रमण आपको एक नयी प्रेरणा दे। इति-विदा पुनर्मिलनाय। - शिवप्रसाद सिंह
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SHIV PRASAD SINGH

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