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भारतीय भाषाओं में रामकथा : असमिया भाषा - 2
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जिस दिन हमारे दिलों में दूसरों के लिए मर-मिटने की भावना आयी, वही हमारी संस्कृति की जन्मतिथि है और जिस दिन आदमी ने दो पत्थरों को टकराकर आग पैदा की, उसी दिन हमारी सभ्यता का जन्म हुआ। दरअसल, किसी सभ्यता का अवसान सम्भव है, लेकिन किसी संस्कृति का पूर्णतः विनाश सम्भव नहीं। कारण कि सभ्यता का निवास विचारों में होता है और संस्कृति का अधिवास संस्कारों में होता है। संस्कृति हमारी रगों में दौड़ती है और सभ्यता कलेवर में। इसलिए आधुनिकता, भूमण्डलीकरण, बाज़ारवाद आदि पूँजीवादी अवधारणाएँ हमारे सांस्कृतिक आशियानों पर लाख बिजलियाँ बरपायें लेकिन उनके तिनके नष्ट नहीं हो पाये हैं। वे अपनी टहनियों को इतनी सख़्ती से पकड़े हुए हैं कि नीड़ का निर्माण फिर से सम्भव है। बस, ज़रूरत है आयातित चक्रवातों को रोकने की। मैं समझता हूँ कि इस दौर में रामकथा से बढ़कर कोई सुरक्षा कवच नहीं है। रामकथा ही वह ढाल है जिसकी वजह से अब भी हमारे रोम-रोम में राम रमे हुए हैं। कारण कि राम और कृष्ण मनुष्यता के बहुत बड़े सपनों के नाम हैं। वे हमारी पुतलियों में नाचते हैं, धमनियों में तैरते हैं। ‘राम’ भारतीय संस्कृति के परिचायक हैं। उन्हें किसी विशेष धर्म, विशेष क्षेत्र या विशेष सम्प्रदाय के प्रतिनिधि के रूप में देखना और स्वीकार करना उनकी महत्ता को तो कम करता ही है, हमारी अज्ञानता को भी दर्शाता है। ‘राम’ शब्द किसी व्यक्ति विशेष या पौराणिक दृष्टि से कहें तो किसी देवता विशेष का परिचायक नहीं बल्कि वह तो प्रतीक है हमारे मानवीय मूल्यों का, हमारी सद्वृत्तियों का, हमारे सद्विचारों का, हमारे सत्कर्मों का। वह प्रतीक हैµसत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् का। ‘राम’ भारतीय संस्कृति के भावनायक हैं। इस भावनायक की कथा में हर युग कुछ-न-कुछ जोड़ता चला आया है। वैदिक काल के बाद सम्भवतः छठी शताब्दी ई. पू. में इक्ष्वाकु वंश के सूत्रों द्वारा रामकथा विषयक गाथाओं की सृष्टि होने लगी। फलतः चौथी शताब्दी ई. पू. तक राम का चरित्र स्फुट आख्यान काव्यों में रचा जाने लगा। किन्तु यह वाचिक परम्परा थी अतः इसका साहित्य आज अप्राप्य है। ऐसी स्थिति के कारण वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ प्राचीनतम उपलब्ध महाकाव्य है। भारतीय परम्परा वाल्मीकि को आदिकवि और रामायण को आदिकाव्य मानती है। इस आदिकाव्य को ही कई शताब्दियों के बाद अलग-अलग परम्पराओं में लिपिबद्ध किया गया। बौद्धों ने कई शताब्दियों तक राम को ‘बोधिसत्व’ मानकर रामकथा को जातक कथाओं में स्थान दिया तो जैनियों ने भी रामकथा को अपनाया और पर्याप्त लोकप्रियता दी। सही मायने में कहें तो रामकथा भारतीय संस्कृति का पर्याय है। उसमें व्यक्त मानवीय मूल्य, मर्यादा एवं आदर्श हमारी उदात्त एवं महान भारतीय संस्कृति के अनिवार्य पहलू हैं और इनकी बिना पर ही वैश्विक संस्कृति में हमारी एक अलग एवं विशिष्ट पहचान है। नितान्त असंवेदनशील युग में इन्सान को इन्सानियत का पाठ पढ़ाने के लिए, उसे ‘बीइंग ह्यूमन’ का अर्थ समझाने के लिए तथा शंकर, तुलसी और गाँधी के ‘रामराज्य’ को प्रतिष्ठित करने के लिए आज रामकथा पर सार्थक विमर्श आवश्यक है। यह पुस्तक इसी विमर्श पर एकाग्र आलेखों का संकलन है।
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Edited by Dr. Anushabd

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