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विजयदेव नारायण साही रचना-संचयन
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हिन्दी साहित्य की नयी आधुनिकता के दौर में, जो 1950 के आसपास शुरू हुआ, विजयदेव नारायण साही की उपस्थिति और हस्तक्षेप बहुत मूल्यवान् रहे हैं। वे महत्त्वपूर्ण कवि, कुशाग्र आलोचक, सजग सम्पादक, मुक्त चिन्तक और ज़मीनी समाज-चिन्तक एक साथ थे। उनका समूचा साहित्य और सामाजिक कर्म, एक तरह से, बीच बहस में हुआ। उनका अपने समय के समाजवादी नेताओं विशेषतः राम मनोहर लोहिया से सार्थक संवाद था और उन्होंने बुनकरों आदि के कई आन्दोलनों में भाग लिया था। आलोचना में उनका जायसी का हमारे समय के लिए पुनराविष्कार, ‘लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस' और ‘साखी' कविता-संग्रह की अनेक कविताओं के माध्यम से कबीर का पुनर्वास साहित्य के अत्यन्त विचारोत्तेजक और सर्जनात्मक मुक़ाम हैं। अपने समय में हावी हई वाम दष्टि के बरअक्स साही जी ने समानधर्मिता का ऐसा विकल्प रचने की कोशिश की जिसमें व्यक्ति और समष्टि एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हैं और परस्पर अतिक्रमण नहीं करते हैं। गोपेश्वर सिंह ने मनोयोग और अध्यवसाय से साही जी की संचयिता तैयार की है जिससे आज के पाठकों को उनके वितान, जटिल संयोजन, साफ़गोई, वैचारिक प्रखरता और बौद्धिक-सर्जनात्मक उन्मेष से सीधा साक्षात्कार हो सकेगा। वर्तमान परिदृश्य में विजयदेव नारायण साही का यह पुनर्वास अपने आप में एक ज़रूरी हस्तक्षेप है। रज़ा फ़ाउण्डेशन इस संचयिता को प्रस्तुत करने में प्रसन्नता अनुभव कर रहा है। -अशोक वाजपेयी
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Edited by Gopeshwar Singh

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