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प्रस्तुत समीक्षात्मक कृति का मन्तव्य यह है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी की सामयिक समीक्षा के व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक पक्षों को सामने ले आ कर वर्तमान पाठकों में उसकी गम्भीरता तथा व्याप्ति दोनों के प्रति रुझान उत्पन्न किया जाये ताकि वह ग़लतफहमी दूर हो सके कि हिन्दी कुछ सीमित समीक्षकों तथा कुछ सीमित क्षेत्र की भाषा और साहित्य तक ही बँधी हुई हैं। हिन्दी की व्यावहारिक समीक्षा का आरम्भ यदि आनन्द कादम्बिनी पत्रिका में प्रकाशित बद्री नारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ के सन् 1882 के लेख ‘संयोगिता स्वयंवर’ तथा सैद्धान्तिक समीक्षा का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत नाटक की भूमिका (सन् 1876) से माना जाये तो इसके प्रारम्भ के लगभग सवा सौ वर्ष हो रहे हैं। पुस्तक परिचय या पुस्तक समीक्षा से शुरू होने वाली व्यावहारिक समीक्षा एवं सैद्धान्तिक समीक्षाओं का विकास हिन्दी में बड़ी त्वरित गति से हुआ है। आज हिन्दी भाषा पूरे देश की गौरवमयी भाषा है। तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, गुजराती, मराठी, उड़िया, असमिया, बँगला, आदि देश की समस्त भाषाओं से जुड़े विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा के स्तर पर हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन ज़ोर-शोर से चल रहा है। देश के कोने-कोने में हिन्दी के विद्वान बिना किसी लोभ और भय के हिन्दी में श्रेष्ठ साहित्य-लेखन का कार्य कर रहे हैं। जो देश के गौरव का विषय है। हिन्दी राष्ट्र की भाषा है। इसके साहित्य और इसकी समीक्षा में सम्पूर्ण भारत के गणमान्य, साहित्यकारों एवं समीक्षकों को प्रकाश में ले आना हमारा प्राथमिक दायित्व है-अन्यथा जो भी विशेष कार्य साहित्यिक समीक्षा के अन्तर्गत पूरे देशभर में हो रहा है, उससे हम उपरिचित रहेंगे और साहित्य के सम्यक मूल्यांकन की समस्या पर भी इसका असर पड़ेगा।
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YOGENDRA PRATAP SINGH

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